बिभूति भूषण बंद्योपाध्याय अनुवाद: जयदीप शेखर
साहित्य विमर्श प्रकाशन
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Chand Ka Pahad – चाँद का पहाड़ गाथा है 1909 के एक भारतीय किशोर शंकर रायचौधरी की, जो साहसिक जीवन जीना चाहता था। संयोगवश वह जा पहुँचता है अफ्रीका, जिसे उन दिनों ‘अन्ध महादेश’ कहा जाता था, यानि जिसके अधिकांश हिस्सों तक मनुष्य के चरण अभी नहीं पहुँचे थे!
वहाँ संयोगवश ही उसकी मुलाकात पुर्तगाली स्वर्णान्वेषी दियेगो अलवरेज से हो जाती है। दोनों मध्य अफ्रीका की दुर्लंघ्य रिख्टर्सवेल्ड पर्वतश्रेणी में स्थित पीले हीरे की खान की खोज में निकल पड़ते हैं, जिसके बारे में मान्यता थी कि एक भयानक दैत्य ‘बुनिप’ उसकी रक्षा करता है!
कैसा रहा यह अभियान? क़्या वे सफल हो सके?
महान बांग्ला लेखक बिभूतिभूषण बन्द्योपाध्याय की रहस्य-रोमांच से भरपूर अमर रचना ‘चाँदेर पाहार’ (1937) का हिन्दी अनुवाद है चाँद का पहाड़, जिसे कि बाल-किशोरों के लिए ‘अवश्य पढ़ें’ की श्रेणी में रखा जा सकता है।
अनुवादों के साथ अमूमन समस्या ये रहती है कि कहानी का ट्रांसलेशन तो हो जाता है परंतु उसका भाव पकड़ के उसे वैसा उकेर पाना बहुत मुश्किल होता है, जयदीप जी ने मामले में इतना अच्छा काम किया है कि अनुवाद न होकर उनका खुद की रचना नजर आती है पुस्तक…
कहानी 1906-07 में रहते नौजवान लड़के शंकर की है। शंकर पढ़ाई पूरी कर चुका है लेकिन छोटी-मोटी नौकरी लेबरी नहीं करना चाहता। वो दुनिया देखना चाहता है, वो पहाड़ों पर जाना चाहता है, वो अपनी ज़िंदगी में एक से बढ़कर एक एडवेंचर करना चाहता है।
उसकी किस्मत फिर ऐसी पलटती है कि छोटे से कारखाने में नौकरी करने की बजाए उसे अफ्रीका की रेलवे लाइन में काम करने का मौका मिल जाता है।
यहाँ उसे पता चलता है कि एक man-eater शेर है जो एक-एक कर उसके साथी कुलियों को अपना शिकार बना रहा है।
फिर कुछ ऐसा मौका आता है कि शंकर का सामना अफ्रीका के सबसे खतरनाक ‘ब्लैक माम्बा’ साँप से होता है।
आधी किताब के बाद कहानी बिल्कुल पलट जाती है और शंकर एक पुर्तगाली एक्सप्लोरर एलवारेज के साथ शंकर हीरे की खोज में निकल पड़ता है। अफ्रीका के इन घने से घने जंगलों में कबीले हैं, लगातार होती बारिश है, बीमार कर देने वाला झरना है, खतरनाक जानवर हैं और दाढ़ी वाली मादा बंदरियाँ भी हैं।
लेकिन इन्हीं के बीच एक और जीव है जिसे कभी किसी ने साक्षात नहीं देखा, हाँ उसकी आवाज़ सुनी है, उसके पदचाप सुने हैं और सुनी है उन लोगों की आखिरी चीखें जो उसके सामने पड़ने का दुस्साहस कर बैठे थे।
वो है बुनिप! बुनिप पहाड़ की जिन ऊँचाइयों पर रहता है, वहाँ कोई दूसरा जानवर भी नहीं आता! बुनिप को एक गुफा का पहरेदार कहा जाता है…! अलवारेज़ भी जानता है कि बुनिप अगर सामने पड़ जाए तो क्या हश्र हो सकता है!
हर पल चौंकाती, रोमांच जगाती ये कहानी आपको बिना आखिरी पन्ना पढे चैन नहीं लेने देती। मन का बच्चा उस एक्सप्लोरर के साथ पहाड़ियाँ कूदने लगता है।
मज़े की बात ये भी है कि कहीं से भी चाँद का पहाड़ अनुवाद नहीं जान पड़ता, जयदीप शेखर जी ने ऐसी भाषा शैली इस्तेमाल की है कि सवा सौ साल पुरानी कहानी भी कल परसों की घटना ही लगती है। जो क्लिष्ट शब्द हैं उनके साधारण भाषा में मतलब भी हाशिये पर लिखे गए हैं।
अच्छी बात ये भी है कि चाँद का पहाड़ में बहुत ज़्यादा कैरिक्टर्स नहीं हैं, शंकर और अलवारेज़ के अलावा दो-चार ही आते-जाते टेम्परेरी पात्र हैं। बुनिप का भोकाल इतना भयंकर बनाया है कि जंगल में शंकर से ज़्यादा डर पढ़ने वाले को लगता है।
यह किताब 12 साल के लड़के से लेकर 70 साल तक के बुज़ुर्ग के लिए भी must read श्रेणी में रखी जा सकती है