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Pratyakshdarshi – यह उपन्यास सारी विपरीत स्थितियों के बीच अपनी जिजीविषा बनाए रखने वालों की आत्मीय कथा है। उपन्यास का समय-काल इस शहर के इतिहास का ऐसा दौर था जब यहां की मुख्य सड़कें पाताल रेल के गड्ढों और ज़मीन से खोदी गयी मिट्टी के पहाड़ों और उन कृत्रिम विपदाओं के बीच किसी तरह रास्ता बनाते आम नागरिकों से भरी थी; ‘लोडशेडिंग’ के चलते जहां रिहाइशी बस्तियों में घंटों या पहरों तक बिजली गायब रहती थी;
उमस के मारे भीड़ भरी प्राइवेट बसों, ट्रामों और नीची छत वाली मिनी बसों में लटककर सफर करना मुहाल था और हुगली नदी से सटा शहर का गोदी वाला इलाका अपनी तस्करी गतिविधियों के लिए कुख्यात हो चुका था। युवकों में बेरोज़गारी अपने चरम तक पहुंच चुकी थी।
जिस माझेरहाट (बीच के बाज़ार) का पुल अभी हाल ही में भरभराकर गिर गया, रेल पटरी के समानांतर उसके नीचे से गुज़रते हुए या उससे कुछ आगे ‘लेवेल क्रॉसिंग’ फाटक के खुलने का इंतज़ार करते हुए हमारा साबका हर रोज़ फेरीवालों के उस चमत्कृत संसार से होता था, जिसमें रुमालों, अंडरवियरों, अगरबत्तियों, फाउंटेन पेनों से लेकर ‘पुलपुल भाजा’ और बच्चों के खिलौनों तक कुछ भी खरीदा जा सकता था।
इन फेरीवालों में बहुत से पढ़े लिखे और शिक्षा प्राप्त नौजवान भी थे जो किसी ढंग की नौकरी की तलाश में धीरे-धीरे अधेड़ और फिर बूढ़े हो गए थे। ज़िंदगी की मामूली चीज़ों के लिए संघर्ष करते इन तमाम चेहरों के बीच यह शहर आज भी उतना ही खस्ताहाल, उतना ही विपन्न, मगर उतना ही जीवंत, उतना ही ज़ि़ंदा है, जितना आज से चालीस वर्ष पहले, सत्तर-अस्सी के उस संक्रमण काल में था।
Weight | 250 g |
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Dimensions | 14 × 3 × 22 cm |
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