साहित्य विमर्श प्रकाशन
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अभिनेता देवानंद साहब अपनी किताब “रोमांसिग विथ लाइफ” में लिखते हैं कि “जीवन का सफर कैसा भी रहा हो, उसमें नाकामियां हों या उपलब्धियां, ये कुछ खास मायने नहीं रखता। सफर जारी रहा और हमने कितनी शिद्दत से मंजिल की तरफ कदम बढ़ाए, ये महत्वपूर्ण बात है।”
मोहपाश आपको जीवन के उतार -चढ़ाव के ऐसे अनुभवों से राब्ता करायेगा कि आप हैरान हो जाएंगे। इसमें पाने, हासिल करने की होड़ नहीं है बल्कि जीवन में गुंथे मोह के धागों को आत्मसम्मान के साथ बचाये रहने की जुगत है। नारी की शक्ति सिर्फ उसके शरीर की बनावट तक सीमित नहीं है, बल्कि उसकी सोच में है।
कहते हैं कि पूरी दुनिया की औरतों की कोई जाति नहीं होती है, उनकी सिर्फ एक जाति होती है – औरत। यानी पूरी दुनिया में वो औरत ही रहती है चाहे वो नेपाल की तराई की एक छोटी सी दुकान चलाकर जीवनयापन करने वाली औरत हो या देश की राजधानी दिल्ली में रह रही आधुनकि परिवेश की स्त्री हो, उन सभी की सामाजिक बेड़ियां और संघर्ष कमोबेश एक जैसे ही हैं।
भुजाली लेकर पहाड़ों पर भेड़ियों और नरपिशाचों से जूझती स्त्री का संघर्ष, सिख दंगों में उजड़ी दिल्ली में इज्जत से जीवनयापन करने की जद्दोजहद की कहानी कहती है, यह उपन्यास। एक युवती के आत्मसम्मान से जीने की जद्दोजहद और हक की लड़ाई जिसमें उसके सामने सब ऐसे लोग ही हैं जिनसे वो मोहपाश के धागे से जुड़ी है।
सभी को एक दूसरे से मोह-नेह का रिश्ता है लेकिन जीवन के कुरुक्षेत्र से सज्ज है ये मोहपाश का चक्रव्यूह। कौन बच कर निकल पाता है – इससे जीत कर या सब कुछ हारकर?
Dr Subodh Kumar Srivastava –
निश्चित रूप से लेखक दिलीप सिंह जी बहुत उम्दा एवं संजीव लेखन के लिए जाने जाते हैं। इसी कड़ी में यह उपन्यास पाठकों के दिल को छुयेगा। हार्दिक शुभकामनाएं एवं बधाई।
नीलम शाक्य –
श्रीमान जी, आप को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई हो आशा है कि आप ऐसे ही लिखते रहें और हमें मार्ग दर्शन करते रहे।
Hitesh Rohilla –
A must read
Abhishek Singh Rajawat –
कहानी का कैनवास काफी वृहद है, बावजूद इसके लेखक की कोशिश काबिले तारीफ है… कुछ प्रसंग अगर न भी होते तो काम चला सकता था, फिर भी ओवर आल पठनीय किताब…
Ram Sagar –
पुस्तक मोहपाश
लेखक दिलीप कुमार
विधा उपन्यास
प्रकाशन साहित्य विमर्श
संस्करण प्रथम
पृष्ठ 220
8 पृष्ठ (परिचय, भूमिका, प्रस्तावना)
210 ( उपन्यास पृष्ठ 9 से 218 तक )
मूल्य 199 रुपये
‘ मोहपाश ‘ उपन्यास
नाम ही पहली बार देखा। ( कहाँ देखा … ये जानने के लिए कॉमेंट में देख सकते हैं। ) इसी तरह उपन्यासकार का नाम भी पहली बार देखा।
उपन्यास का नाम अच्छा लगा मुख-पृष्ठ और भी मन को भाया। कुछ पृष्ठ पढ़कर ही मन में सोच लिया कि इसकी समीक्षा लिखूँगा।
उपन्यास समाप्त करने पर सबसे पहले मन में यही बात आयी कि उपन्यास दुलारी के पत्र के साथ ही समाप्त कर देना चाहिए था। आगे कुछ भी लिखकर पाठक के मन में और आगे जानने की उत्सुकता जगाना ही नहीं था और यदि ऐसा कर भी दिया तो पाठक को एक निर्णय पर लाकर छोड़ना था। एक-दो पंक्तिया या एक-दो अनुच्छेद और लिखकर जगायी हुई उत्सुकता का शमन जरूर करना चाहिए था।
ख़ैर, इस जानबूझकर की गयी कमी को छोड़ दें तो बढ़िया उपन्यास है।
दूसरी बात ये कि जिस तरह कथानक को अभिव्यक्त किया गया है, इससे अच्छा तरीका हो भी क्या सकता था? आमतौर पर किसी कहानी को या तो नायिका के दृष्टिकोण से लिखा जाता है या फिर नायक के दृष्टिकोण से। दोनों के ही दृष्टिकोण से कहानी को लिखना वाकई कमाल की बात है। ऐसा तभी हो सकता है जब दोनों कहानियों को समान्तर साथ न लिखा जाये … और उपन्यासकार ने यही किया।
दुलारी की कहानी से उपन्यास शुरू होता है। कुल 20 भागों में बाँट कर लिखे गये उपन्यास में 11 भागों तक दुलारी ही कहानी की प्रमुख पात्र होती है। 12 वें भाग में दुलारी की दास्तान एक ऐसे व्यक्ति पर जाकर थोड़ा अनिश्चितता भरा मोड़ लेती है कि जाने दुलारी और उसकी बेटी मीता का क्या होगा। दुलारी की हालत बिल्कुल कटी पतंग जैसी हो गयी। क्या पता कौन लूट ले, किसके आंगन या छत पर गिरे? तुलसीनाथ पता नहीं कैसा आदमी है, जानती-पहचानती भी तो नहीं। बस इतना ही परिचय है कि सहयात्री के तौर पर उसके साथ नेपाल से दिल्ली आ गयी। हालाँकि तुलसीनाथ इंसानियत के तौर पर पूरी मदद कर रहा है पर ….. ?
13 वें भाग से तुलसीनाथ की कहानी शुरू हो जाती है। शुरुआत तो 12 वें में ही हो जाती है। ज्यों-ज्यों पाठक पढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उसके दिमाग में बार-बार आता है कि दुलारी की कहानी कब आयेगी, बीच में ही क्यों छोड़ दी? अब तो तुलसीनाथ और उसकी अम्मा लक्ष्मी की ही कहानी बढ़ती-फैलती जा रही है। इस तुलसीनाथ की कहानी 17 वें भाग में वहीं समाप्त होती है जहाँ से दुलारी की कहानी शुरू हुई थी।
18 वें भाग में अचानक दुलारी पर गिरफ्तारी की गाज गिरती है। माँ-बेटी से दूर रहते हुए कभी-कभार उनकी ख़ैर-खबर पूछने और मदद करने वाला तुलसीनाथ भी उस समय नहीं होता, कहीं बाहर गया होता है अपने मालिक के काम से। अनपढ़ औरत, पराया देश, जवान बेटी …. वो भी उस समय घर पर नहीं, किताबें लाने गयी हुई थी। माँ-बेटी ही तो रहती थीं। दुलारी बहुत गिड़गिड़ायी कि मीता को तो आ जाने दो, क्या बीतेगी उस पर जब उसे पता लगेगा, जवान बेटी अकेली कैसे रहेगी? पर पुलिस वालों ने कुछ न सुना।
18 वें भाग के खत्म होते-होते और 19 वें में भी वो कुछ होता है, जिसके बारे में दुलारी ने कभी सपने में भी न सोचा। 20 वें भाग में दुलारी को तुलसीनाथ दिल्ली लाया भी पर ऐसा कुछ हुआ कि दुलारी घर छोड़कर चली गयी हमेशा के लिए …. न जाने कहाँ।
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इतना बढ़िया तरह से लिखा गया है कि उपन्यास पढ़ते हुए बार-बार सन्देह होता है कि ये जरूर किसी की आपबीती है चाहे वो कोई भी हो, बस पात्रों के नाम बदल दिये गये होंगे।
शैली-शब्दावली सहज ही है पर कुछ शब्द पूर्वी उत्तर प्रदेश अर्थात अवध क्षेत्र के गोंडा, गोरखपुर की अवधी बोली के भी हैं जैसे कि “मेहरारू” ….. जिसका अर्थ है बीवी, पत्नी, घरवाली।
इसी तरह एक-दो शब्द नेपाल क्षेत्र के भी हैं जैसे कि “भुजाली” ….. जिसका अर्थ है छोटी कटार, कटारी, खुखरी जैसा हथियार।
” दाज्यू ” ….. जिसका अर्थ होता है पिता जी, बापू, बप्पा।
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उपन्यास का कथानक नेपाल से दिल्ली तक फैला है। इसलिए जो लोग नेपाल से दिल्ली आकर स्थायी या अस्थायी तौर पर काम-धंधा करते हैं …. उनको तो खासतौर पर पसन्द आयेगा ही, इसके साथ ही जो लोग गोरखपुर, गोंडा आदि पूर्वी उत्तर प्रदेश से दिल्ली आकर काम कर रहे हैं, कर चुके हैं …. उनको भी अवश्य पसन्द आयेगा। जिनके घरों या दुकानों-कारखानों में नेपाल या अवध क्षेत्र के गाँव-देहात से आये लोग काम करते हैं, उनको भी ये उपन्यास जरूर पढ़ना चाहिए ताकि उनके हालातों को महसूस कर सकें, उनसे हमदर्दी कर सकें।
जो लोग नयी दिल्ली के विभिन्न स्थानों से परिचित हैं, उन्हें उपन्यास को विशेष रूप से समझ आयेगा और अच्छा तो लगना ही है।
इस उपन्यास में एक-दो सिख पात्र भी हैं जो ये साबित करते हैं कि सिख क़ौम ऐसी है जो दंगा-फसाद में सब-कुछ गँवा कर भी इंसानियत की राह नहीं छोड़ती है।
इस उपन्यास से परोक्ष रूप से ये शिक्षा मिलती है कि आदमी की नेकी, ईमानदारी, इंसानियत का सुफल जरूर मिलता है चाहे जैसे मिले।
सद्भावना और सत्कर्म कभी बेकार नहीं जाते।
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मोहपाश उपन्यास से कुछ अंश
पृष्ठ 164 पर
” लक्ष्मी ने अपना बेहद जरूरी सामान बांधा। घर से बाहर निकल कर उसकी देहरी को प्रणाम किया तो उसका गला रुंध गया। आँसुओं से उसका चेहरा तर-बतर हो गया। इक्कीस बरस तक इस घर में रही वो। पति, बेटा-रोजगार, पालतू जानवर और ये मिट्टी। उसने मिट्टी को माथे से लगाया और बेआवाज रोती हुई वहाँ से चल दी। वो जानती थी कि इस जन्म में इस देहरी पर वो दुबारा नहीं आएगी। औरत बेजान मकानों को हँसता-बसता घर बना देती है। यही घर जब उससे छूटता है तब उसे अपनी औलाद के खोने जितना गम होता है।
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पृष्ठ 188 पर
” आप मेरे दाज्यू के साथी थे। बहुत निभाया आप लोगों ने। मुझे अपना लड़का ही समझना। कभी दिल्ली आओ, तो जोयल के पास मेरा पता है। पत्र लिखना। पता नहीं इस जन्म में दुबारा मैं यहाँ आऊँ कि नहीं। अब तो घर भी नहीं रहा। कोई गलती हुई हो तो क्षमा करना। आशीर्वाद दो, चलता हूँ। “