जहाँगीर की स्वर्णमुद्रा सुविख्यात फिल्म-निदेशक और बांग्ला लेखक सत्यजित राय की बारह कहानियों का महत्त्वपूर्ण संग्रह है। सत्यजित राय विरल कथा-स्थितियों और मानव-जीवन की विविधता के चितेरे हैं। देश-काल-परिवेश इस चित्रण में एक विराट फलक का कार्य करता है और उनकी अनुभव-सम्पन्न जीवन-दृष्टि विविध रंगों का। एक ऐसा समाज इन कहानियों में बराबर दिखाई देता है, जिसमें विभिन्न प्रकार की आशंकाएँ, कुंठाएँ और अन्तर्विरोध मानव-जीवन को प्रभावित-परिचालित करते हैं। फिर भी उनका मनुष्य कहीं हारता नहीं। ठगा जाकर भी ठगने की कोशिश नहीं करता और मानव-मूल्यों के प्रति एकनिष्ठ बना रहता है। यही कारण है कि वर्तमान व्यावसायिक सभ्यता से शोषित-प्रताड़ित होने के बावजूद कहीं-कहीं तो वह नैतिक प्रतिरोध की शक्ल अख्तियार करता दिखाई देता है। राय के कथा-लेखन की कुछ और विशेषताओं से भी ये कहानियाँ परिचित कराती हैं। मसलन, स्थितियों की निस्संग रहस्यात्मकता, व्यंग्य-विनोद का महीन पुट और शिल्पगत नाटकीयता। संक्षेप में कहा जाए तो हिन्दी पाठकों के लिए ये कहानियाँ एक अलग तरह का अनुभव-संसार सँजोए हुए हैं।.
2 मई, 1921 को गड़पार रोड, दक्षिणी कलकत्ता (बंगाल) में जन्म। पिता सुकुमार राय एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे।
प्रारम्भिक शिक्षा घर पर हुई। पाँच साल की आयु में माँ सुप्रभा राय के साथ भवानीपुर में नाना के घर जाकर रहने लगे। सन् 1936 में बालीगंज गवर्नमेंट हाई स्कूल से मैट्रिक पास किया।
बांग्ला फ़िल्मों के अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त निदेशक होने के साथ-साथ उच्च कोटि के संगीतकार, चित्रकार, छायाकार, पत्रकार और लेखक। बच्चों के लिए विशेष तौर पर काम किया है।
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